Friday, November 3, 2017

आइये गंजिंग चलें


 दिलीप अवस्थी 

 

 आइये आज गंजिंग करते हैं। लेकिन उसके पहले ज़रा समझ लिया जाए कि गंजिंग आखिर है किस बला का नाम।  अगर आप सोचते  हैं कि गंजिंग निठल्लागिरि का दूसरा नाम है या फिर वेले-फुकरों का काम है तो आपने गंजिंग का कभी लुत्फ़ उठाया ही नहीं है।  हज़रतगंज को महज़ एक छोटा कनॉट प्लेस या सिर्फ एक महंगा बाजार समझने वाले कभी भी गंजिंग के गूढ़ रहस्य को नहीं समझ सकते।  

गंजिंग दरअसल मनचलों की एक नाज़ुक सी  ललित कला है जिसे सिर्फ गुरु-शिष्य परंपरा के तहत ही सीखी जा सकता है। महीनों के कड़े परिश्रम एवं अनवरत अभ्यास से ही इसमें महारत प्राप्त की जा सकती है।   सबसे जरूरी तत्व तो है आपका आत्मविश्वास और जीवन को बिंदास जीने का अंदाज़। 

गंजिंग का असली महात्म है कि इससे खरीदारी से कोई लेना-देना नहीं है।  अलबत्ता खरीदारों से जरूर है।  कैसे ? आगे समझाते हैं।  गंजिंग एक ऐसी विधा का नाम है कि जब डेढ़ किलोमीटर के हज़रतगंज क्षेत्र की परिक्रमा कुछ इस शिद्दत से की जाये कि डेढ़-दो घंटों का समय पलकों में बीत जाये। इसे एकाग्रता से अकेले में भी किया जा सकता है और छोटे समूह में भी।  इसमें सिर्फ समय ही नहीं कुछ मुद्रा का खीसे में होना भी आवश्यक है।

वैसे तो मैं 1970 से ही गंज का मुरीद था लेकिन गंजिंग के कौशल विकास में मुझे भी छह वर्ष लग गए।  वैसे तो गंजिंग पर कोई उम्र की पाबन्दी कभी नहीं रही है लेकिन  उन दिनों गंज युवक-युवतियों के नैना-चार का प्रमुख केंद्र था।  कोई ओछी छेड़छाड़ नहीं , बस विशुद्ध नयन सुख।  बगल से गुजरे तो दोस्तों में यही चर्चा कि कौन सा परफूम था या फिर किस क्लास की है जैसे सवालों में आधा घंटा तो आराम से निकल जाता था।  अगर जान-पहचान की निकली और उसने गलती से भी हेलो बोल दिया तो समझिये सारे दोस्त मिलकर आपके बटुए को शहीद कर देते थे।  और कोई अनजानी पलट कर देख ले या फिर मुस्कुरा दे तो किसी भी गंजजू का अगले 15 दिनों तक सजधज कर गंजिंग करना अनिवार्य हो जाता था । 

जब्बार या छेदी के यहाँ काफी पीने से ज्यादा लुत्फ़ आते-जाते हसीं चेहरों को ताकने में हुआ करता था। लव-लेन में कंधे से कन्धा टकराते हुआ 'आई  ऍम सारी'कहकर निकलने पर शर्तें लगा करती थीं। समय के साथ गंजिंग के स्वरुप बदले हैं लेकिन आज भी हज़रतगंज शहरवासियों के टहल्ला मारने का प्रमुख स्थान है और गंजजूओं  का मुख्य तीर्थ।  
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